कैवल्योपनिषद
लेखक | वेदव्यास |
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रचनाकार | अन्य पौराणिक ऋषि |
भाषा | संस्कृत |
शृंखला | कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद |
विषय | ज्ञान योग, द्वैत अद्वैत सिद्धान्त |
शैली | हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ |
प्रकाशन स्थान | भारत |
कैवल्योपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद् है। इस उपनिषद में महर्षि आश्वलायन द्वारा ब्रह्मा के सम्मुख जिज्ञासा प्रकट करने पर 'कैवल्य पद की प्राप्ति' के मर्म को समझाया गया है। कैवल्य उपनिषद के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। इसे शैव उपनिषद माना जाता है। वर्तमान समय में यह उपनिषद दो रूपों में प्राप्त होता है, एक कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध है और दूसरा अथर्ववेद से सम्बद्ध।
कैवल्य उपनिषद में स्वयं को ब्राह्मी चेतना से अभिन्न अनुभव करने की बात कही गयी है, अर्थात् सबको स्वयं में और स्वयं को सब में अनुभव करते हुए त्रिदेवों, चराचर सृष्टि के पंचभूतों आदि में अभेद की स्थिति का वर्णन किया गया है। इस 'ब्रह्माविद्या' की प्राप्ति कर्म, धन-धान्य या सन्तान के द्वारा असम्भव है। इसे श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
महर्षि आश्वलायन के पूछने पर ब्रह्मा जी ने कहा-'हे मुनिवर! उस अतिश्रेष्ठ परात्पर तत्त्व को श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योगाभ्यास द्वारा जाना जा सकता है। उसे न तो कर्म से, न सन्तान से और न धन से पाया जा सकता है। उसे योगीजन ही प्राप्त कर सकते हैं। वह परात्पर पुरुष ब्रह्मा, शिव और इन्द्र है और वही अक्षर-रूप में ओंकार-स्वरूप परब्रह्म है। वही विष्णु है, वही प्राणतत्त्व है, वही कालाग्नि है, वही आदित्य है और चन्द्रमा है। जो मनुष्य अपनी आत्मा को समस्त प्राणियों के समान देखता है और समस्त प्राणियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता है, वही साधक 'कैवल्य पद' प्राप्त करता है। यह कैवल्य पद ही आत्मा से साक्षात्कार है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, तीनों अवस्थाओं में जो कुछ भी भोग-रूप में है, उनसे तटस्थ साक्षी-रूप में सदाशिव मैं स्वयं हूं। मुझसे ही सब कुछ प्रादुर्भत होता है और सब कुछ मुझसे ही लीन हो जाता है।'
'ऋषिवर ! मैं अणु से भी अणु, अर्थात् परमाणु हूं। मैं स्वयं विराट पुरुष हूँ और विचित्रताओं से भरा यह सम्पूर्ण विश्व मेरा ही स्वरूप है। मैं पुरातन पुरुष हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही हिरण्यगर्भा हूँ और मैं ही शिव-रूप परमतत्त्व हूँ।'
सन्दर्भ
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