शाह जहाँ
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शाहजहाँ | |||||
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5 वें मुग़ल सम्राट | |||||
शासनावधि | १९ जनवरी 1628 -31 जुलाई 1658 | ||||
राज्याभिषेक | १४ फ़रवरी 1628 | ||||
पूर्ववर्ती | जहाँगीर | ||||
उत्तरवर्ती | औरंग़ज़ेब | ||||
जन्म | खुर्रम 5 जनवरी 1592 लाहौर, पाकिस्तान | ||||
निधन | 22 जनवरी 1666 (आयु 74) आगरा किला, आगरा, भारत | ||||
समाधि | |||||
जीवनसंगी | जहां आरा बेगम कन्दाहरी बेग़म अकबराबादी महल मुमताज महल हसीना बेगम मुति बेगम कुदसियाँ बेगम फतेहपुरी महल सरहिंदी बेगम | ||||
संतान | पुरहुनार बेगम जहाँआरा बेगम दारा शिकोह शाह शुजा रोशनआरा बेगम औरंग़ज़ेब मुराद बख्श गौहरा बेगम | ||||
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घराना | तैमूर का कुल | ||||
पिता | जहाँगीर | ||||
माता | जगत गोसाईं (बिलकीस मकानी) |
शाह जहाँ (उर्दू: شاہجہان) पाँचवे मुग़ल शहंशाह थे।[1] शाह जहाँ अपनी न्यायप्रियता और वैभवविलास के कारण अपने काल में बड़े लोकप्रिय रहे। किन्तु इतिहास में उनका नाम केवल इस कारण नहीं लिया जाता। शाहजहाँ का नाम एक ऐसे आशिक के तौर पर लिया जाता है जिसने अपनी बेग़म मुमताज़ बेगम के लिए विश्व की सबसे ख़ूबसूरत इमारत ताज महल बनाने का यत्न किया।
जीवन परिचय
[संपादित करें]शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था। वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौक़ीन बादशाह था। वह बड़ा कला प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था। उसका विवाह 20 वर्ष की आयु में नूरजहाँ के भाई आसफ़ ख़ाँ की पुत्री 'आरज़ुमन्द बानो' से सन् 1612 में हुआ था। वही बाद में 'मुमताज़ महल' के नाम से उसकी प्रियतमा बेगम हुई। 20 वर्ष की आयु में ही शाहजहाँ, जहाँगीर शासन का एक शक्तिशाली स्तंभ समझा जाता था। फिर उस विवाह से उसकी शक्ति और भी बढ़ गई थी। नूरजहाँ, आसफ़ ख़ाँ और उनका पिता मिर्ज़ा गियासबेग़ जो जहाँगीर शासन के कर्त्ता-धर्त्ता थे, शाहजहाँ के विश्वसनीय समर्थक हो गये थे। शाहजहाँ के शासन−काल में मुग़ल साम्राज्य की समृद्धि, शान−शौक़त और ख्याति चरम सीमा पर थी। उसके दरबार में देश−विदेश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति आते थे। वे शाहजहाँ के वैभव और ठाट−बाट को देख कर चकित रह जाते थे। उसके शासन का अधिकांश समय सुख−शांति से बीता था; उसके राज्य में ख़ुशहाली रही थी। उसके शासन की सब से बड़ी देन उसके द्वारा निर्मित सुंदर, विशाल और भव्य भवन हैं। उसके राजकोष में अपार धन था।
ताज महल का निर्माण
[संपादित करें]पहली नज़र
[संपादित करें]जहाँगीर के दौर में एतमाउद्दौला वज़ीर बनाए गए। इन्हीं एतमाउद्दौला के बेटे थे अबु हसन आसफ़ खान. और इन्हीं अब्दुल हसन आसफ़ खान की बेटी थी अर्जुमंद (जिन्हें बाद में मुमताज का नाम मिला). अर्जुमंद की पैदाइश थी 27 अप्रैल, 1593 की थी. बेइन्तहा खूबसूरत थी वो. बला की हसीन. कहते हैं शाहजहाँ ने पहली बार अर्जुमंद को आगरा के मीना बाज़ार की किसी गली में देखा था. उसकी अनहद खूबसूरती, शाहजहाँ को पहली नज़र में उससे प्यार हो गया.
सगाई
[संपादित करें]शाहजहां और अर्जुमंद की शादी में कोई दीवार नहीं थी. अप्रैल 1607 की बात. 14 साल की अर्जुमंद और 15 साल के खुर्रम (शाहजहाँ का शुरुआती नाम) की सगाई हो गई.
निकाह
[संपादित करें]फिर 10 मई, 1612 को सगाई के करीब पाँच साल और तीन महीने बाद इन दोनों का निकाह हुआ. निकाह के समय शाहजहाँ की उम्र 20 बरस और तीन महीने थी. अर्जुमंद थी 19 साल और एक महीने की. जहाँगीर ने इन दोनों की शादी का ज़िक्र अपने मेमॉइर ‘तुज़ुक-ए-जहाँगीरी’ (ज्यादा प्रचलित जहांगीरनामा) में यूँ किया है-
अर्जुमंद और खुर्रम की जब सगाई हुई थी, तब खुर्रम की एक भी शादी नहीं हुई थी. मगर सगाई और शादी के बीच खुर्रम की एक शादी फारस की शहजादी क्वानदरी बेगम से हो गई. वो सियासी कारणों से करवाया गया रिश्ता था. अर्जुमंद से निकाह के बाद भी उसने एक और निकाह किया. अपनी तीन बीवियों में सबसे ज्यादा मुहब्बत शाहजहाँ अर्जुमंद बानो बेगम से करता था. अर्जुमंद यानी मुमताज की बुआ थीं मेहरुन्निसा. जिनकी शादी शाहजहाँ के पिता जहाँगीर से हुई. और आगे चलकर इनका नाम ‘नूरजहाँ’ मशहूर हुआ.
शाहजहाँ के समय जो लिखा गया. उन सोर्सेज़ के मुताबिक अर्जुमंद काफी दयालु और उदार थी. वो मुगल साम्राज्य के प्राशासनिक कामों में भी शिरकत किया करती थीं. शाहजहाँ ने उन्हें एक राजसी मुहर भी दी थी. लोग उनके पास अपनी अर्जियाँ लेकर आते. वो विधवाओं को मुआवजे भी बाँटा करती. जब भी शाहजहाँ किसी जंग पर जाते, मुमताज साथ होतीं.
मुमताज और शाहजहाँ के बीच इतनी मुहब्बत थी कि लोग कहते हैं शौहर और बीवी में ऐसा इश्क़ किसी ने देखा नहीं था. दोनों के 13 बच्चे हुए. तीसरे नंबर की औलाद था दारा शिकोह. और छठे नंबर पर पैदा हुआ था औरंगजेब. 1631 का साल था और महीना था जून. शाहजहाँ अपनी सेना के साथ बुरहानपुर में थे. जहान लोदी पर चढ़ाई थी. मुमताज भी थीं शाहजहाँ के साथ. यहीं पर करीब 30 घंटे लंबे लेबर पेन के बाद अपने 14वें बच्चे को जन्म देते हुए मुमताज की मौत हो गई. मुमताज के डॉक्टर वज़ीर खान और उनके साथ रहने वाली दासी सति-उन-निसा ने बहुत कोशिश की. लेकिन वो मुमताज को बचा नहीं पाए.
मुमताज की मौत के ग़म में शाहजहाँ ने अपने पूरे साम्राज्य में शोक का ऐलान कर दिया. कहते हैं, पूरे मुगल साम्राज्य में दो साल तक मुमताज की मौत का ग़म मनाया गया था. कहते हैं कि मुमताज जब आगरा में होतीं, तो यमुना किनारे के एक बाग में अक्सर जाया करती थीं. शायद इसी वजह से शाहजहाँ ने जब मुमताज की याद में एक मास्टरपीस इमारत बनाने की सोची, तो यमुना का किनारा तय किया.
38-39 बरस की उम्र तक मुमताज तकरीबन हर साल गर्भवती रहीं. शाहजहाँनामा में मुमताज के बच्चों का ज़िक्र है. इसके मुताबिक-
1. मार्च 1613: शहजादी हुरल-अ-निसा
2. अप्रैल 1614: शहजादी जहांआरा
3. मार्च 1615: दारा शिकोह
4. जुलाई 1616: शाह शूजा
5. सितंबर 1617: शहजादी रोशनआरा
6. नवंबर 1618: औरंगजेब
7. दिसंबर 1619: बच्चा उम्मैद बख्श
8. जून 1621: सुरैया बानो
9. 1622: शहजादा, जो शायद होते ही मर गया
10. सितंबर 1624: मुराद बख्श
11. नवंबर 1626: लुफ्त्ल्लाह
12. मई 1628: दौलत अफ्जा
13. अप्रैल 1630: हुसैनआरा
14. जून 1631: गौहरआरा
शानो-शौक़त
[संपादित करें]शाहजहाँ ने सन् 1648 में आगरा की बजाय दिल्ली को राजधानी बनाया; किंतु उसने आगरा की कभी उपेक्षा नहीं की। उसके प्रसिद्ध निर्माण कार्य आगरा में भी थे। शाहजहाँ का दरबार सरदार सामंतों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा देश−विदेश के राजदूतों से भरा रहता था। उसमें सबके बैठने के स्थान निश्चित थे। जिन व्यक्तियों को दरबार में बैठने का सौभाग्य प्राप्त था, वे अपने को धन्य मानते थे और लोगों की दृष्टि में उन्हें गौरवान्वित समझा जाता था। जिन विदेशी सज्ज्नों को दरबार में जाने का सुयोग प्राप्त हुआ था, वे वहाँ के रंग−ढंग, शान−शौक़त और ठाट−बाट को देख कर आश्चर्य किया करते थे। तख्त-ए-ताऊस शाहजहाँ के बैठने का राजसिंहासन था।
मनसब व उपाधि
[संपादित करें]1606 ई. में शाहज़ादा ख़ुर्रम को 8000 जात एवं 5000 सवार का मनसब प्राप्त हुआ। 1612 ई. में ख़ुर्रम का विवाह आसफ़ ख़ाँ की पुत्री आरज़ुमन्द बानों बेगम (बाद में मुमताज़ महल) से हुआ, जिसे शाहजहाँ ने ‘मलिका-ए-जमानी’ की उपाधि प्रदान की। 1631 ई. में प्रसव पीड़ा के कारण उसकी मृत्यु हो गई। आगरा में उसके शव को दफ़ना कर उसकी याद में संसार प्रसिद्ध ताजमहल का निर्माण किया गया। शाहजहाँ की प्रारम्भिक सफलता के रूप में 1614 ई. में उसके नेतृत्व में मेवाड़ विजय को माना जाता है। 1616 ई. में शाहजहाँ द्वारा दक्षिण के अभियान में सफलता प्राप्त करने पर उसे 1617 ई. में जहाँगीर ने ‘शाहजहाँ’ की उपाधि प्रदान की थी। शाहजहां के काल में 1630-32 तक गुजरात,खानदेश व दक्कन के कुछ भागों में भयंकर सूखा पड़ा था। पीटर मुंडी ने इसका विवरण दिया
सिंहासन के लिए साज़िश
[संपादित करें]नूरजहाँ के रुख़ को अपने प्रतिकूल जानकर शाहजहाँ ने 1622 ई. में विद्रोह कर दिया, जिसमें वह पूर्णतः असफल रहा। 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु के उपरान्त शाहजहाँ ने अपने ससुर आसफ़ ख़ाँ को यह निर्देश दिया, कि वह शाही परिवार के उन समस्त लोगों को समाप्त कर दें, जो राज सिंहासन के दावेदार हैं। जहाँगीर की मृत्यु के बाद शाहजहाँ दक्षिण में था। अतः उसके श्वसुर आसफ़ ख़ाँ ने शाहजहाँ के आने तक ख़ुसरों के लड़के दाबर बख़्श को गद्दी पर बैठाया। शाहजहाँ के वापस आने पर दाबर बख़्श का क़त्ल कर दिया गया। इस प्रकार दाबर बख़्श को बलि का बकरा कहा जाता है। आसफ़ ख़ाँ ने शहरयार, दाबर बख़्श, गुरुसस्प (ख़ुसरों का लड़का), होशंकर (शहज़ादा दानियाल के लड़के) आदि का क़त्ल कर दिया।
राज्याभिषेक
[संपादित करें]24 फ़रवरी, 1628 ई. को शाहजहाँ का राज्याभिषेक आगरा में ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन, मुहम्मद साहिब किरन-ए-सानी' की उपाधि के साथ किया गया। विश्वासपात्र आसफ़ ख़ाँ को 7000 जात, 7000 सवार एवं राज्य के वज़ीर का पद प्रदान किया। महावत ख़ाँ को 7000 जात 7000 सवार के साथ ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की गई। नूरजहाँ को दो लाख रु. प्रति वर्ष की पेंशन देकर लाहौर जाने दिया गया, जहाँ 1645 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
धार्मिक नीति
[संपादित करें]सम्राट अकबर ने जिस उदार धार्मिक नीति के कारण अपने शासन काल में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी, वह शाहजहाँ के काल में नहीं थी। उसमें इस्लाम धर्म के प्रति कट्टरता और कुछ हद तक धर्मान्धता थी। वह मुसलमानों में सुन्नियों के प्रति पक्षपाती और शियाओं के लिए अनुदार था। हिन्दू जनता के प्रति सहिष्णुता एवं उदारता नहीं थी। शाहजहाँ ने खुले आम हिन्दू धर्म के प्रति विरोध भाव प्रकट नहीं किया, तथापि वह अपने अंत:करण में हिन्दुओं के प्रति असहिष्णु एवं अनुदार था।
शाहजहाँ के समय में हुए विद्रोह
[संपादित करें]लगभग सभी मुग़ल शासकों के शासनकाल में विद्रोह हुए थे। शाहजहाँ का शासनकाल भी इन विद्रोहों से अछूता नहीं रहा। उसके समय के निम्नलिखित विद्रोह प्रमुख थे-
बुन्देलखण्ड का विद्रोह (1628-1636ई.)
[संपादित करें]वीरसिंह बुन्देला के पुत्र जुझार सिंह ने प्रजा पर कड़ाई कर बहुत-सा धन एकत्र कर लिया था। एकत्र धन की जाँच न करवाने के कारण शाहजहाँ ने उसके ऊपर 1628 ई. में आक्रमण कर दिया। 1629 ई. में जुझार सिंह ने शाहजहाँ के सामने आत्मसमर्पण कर माफी माँग ली। लगभग 5 वर्ष की मुग़ल वफादरी के बाद जुझार सिंह ने गोंडवाना पर आक्रमण कर वहाँ के शासक प्रेम नारायण की राजधानी ‘चौरागढ़’ पर अधिकार कर लिया। औरंगज़ेब के नेतृत्व में एक विशाल मुग़ल सेना ने जुझार सिंह को परास्त कर भगतसिंह के लड़के देवीसिंह को ओरछा का शासक बना दिया। इस तरह यह विद्रोह 1635 ई. में समाप्त हो गया। चम्पतराय एवं छत्रसाल जैसे महोबा शासकों ने बुन्देलों के संघर्ष को जारी रखा।
ख़ानेजहाँ लोदी का विद्रोह (1628-1631 ई.)
[संपादित करें]पीर ख़ाँ ऊर्फ ख़ानेजहाँ लोदी एक अफ़ग़ान सरदार था। इसे शाहजहाँ के समय में मालवा की सूबेदारी मिली थी। 1629 ई. में मुग़ल दरबार में सम्मान न मिलने के कारण अपने को असुरक्षित महसूस कर ख़ानेजहाँ अहमदनगर के शासक मुर्तजा निज़ामशाह के दरबार में पहुँचा। निज़ामशाह ने उसे ‘बीर’ की जागीरदारी इस शर्त पर प्रदान की, कि वह मुग़लों के क़ब्ज़े से अहमदनगर के क्षेत्र को वापस कर दें। 1629 ई. में शाहजहाँ के दक्षिण पहुँच जाने पर ख़ानेजहाँ को दक्षिण में कोई सहायता न मिल सकी, अतः निराश होकर उसे उत्तर-पश्चिम की ओर भागना पड़ा। अन्त में बाँदा ज़िले के ‘सिंहोदा’ नामक स्थान पर ‘माधोसिंह’ द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। इस तरह 1631 ई. तक ख़ानेजहाँ का विद्रोह समाप्त हो गया।
पुर्तग़ालियों के बढ़ते प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से शाहजहाँ ने 1632 ई. में उनके महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र ‘हुगली’ पर अधिकार कर लिया। शाहजहाँ के समय में (1630-32) दक्कन एवं गुजरात में भीषण दुर्भिक्ष (अकाल) पड़ा, जिसकी भयंकरता का उल्लेख अंग्रेज़ व्यापारी 'पीटर मुंडी' ने किया है। शाहजहाँ के शासन काल में ही सिक्ख पंथ के छठें गुरु हरगोविंद सिंह से मुग़लों का संघर्ष हुआ, जिसमें सिक्खों की हार हुई।
साम्राज्य विस्तार
[संपादित करें]दक्षिण भारत में शाहजहाँ के साम्राज्य विस्तार का क्रम इस प्रकार है- शाहजहाँ
अहमदनगर
[संपादित करें]जहाँगीर के राज्य काल में मुग़लों के आक्रमण से अहमदनगर की रक्षा करने वाले मलिक अम्बर की मृत्यु के उपरान्त सुल्तान एवं मलिक अम्बर के पुत्र फ़तह ख़ाँ के बीच आन्तरिक कलह के कारण शाहजहाँ के समय महावत ख़ाँ को दक्कन एवं दौलताबाद प्राप्त करने में सफलता मिली। 1633 ई. में अहमदनगर का मुग़ल साम्राज्य में विलय किया गया और नाममात्र के शासक हुसैनशाह को ग्वालियर के क़िले में कारावास में डाल दिया गया। इस प्रकार निज़ामशाही वंश का अन्त हुआ, यद्यपि शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले ने 1635 ई. में मुर्तजा तृतीय को निज़ामशाही वंश का शासक घोषित कर संघर्ष किया, किन्तु सफलता हाथ न लगी। चूंकि शाहजी की सहायता अप्रत्यक्ष रूप से गोलकुण्डा एवं बीजापुर के शासकों ने की थी, इसलिए शाहजहाँ इनको दण्ड देने के उद्देश्य से दौलताबाद पहुँचा। गोलकुण्डा के शासक ‘अब्दुल्लाशाह’ ने डर कर शाहजहाँ से निम्न शर्तों पर संधि कर ली-
- बादशाह को 6 लाख रुपयें का वार्षिक कर देने मंज़ूर किया।
- बादशाह के नाम से सिक्के ढलवाने एवं ख़ुतबा (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाने की बात मान ली।
- साथ ही बीजापुर के विरुद्व मुग़लों की सैन्य कार्यवाही में सहयोग की बात को मान लिया।
- गोलकुण्डा के शासक ने अपने पुत्री का विवाह औरंगज़ेब के पुत्र मुहम्मद से कर दिया।
- मीर जुमला (फ़ारस का प्रसिद्ध व्यापारी) जो गोलकुण्डा का वज़ीर था, मुग़लों की सेना में चला गया और उसने शाहजहाँ को कोहिनूर हीरा भेट किया।
बीजापुर
[संपादित करें]बीजापुर के शासक आदिलशाह द्वारा सरलता से अधीनता न स्वीकार करने पर शाहजहाँ ने उसके ऊपर तीन ओर से आक्रमण किया। बचाव का कोई भी मार्ग न पाकर आदिलशाह ने 1636 ई. में शाहजहाँ की शर्तों को स्वीकार करते हुए संधि कर ली। संधि की शर्तों में बादशाह को वार्षिक कर देना, गोलकुण्डा को परेशान न करना, शाहजी भोंसले की सहायता न करना आदि शामिल था। इस तरह बादशाह शाहजहाँ 11 जुलाई, 1636 ई. को औरंगज़ेब को दक्षिण का राजप्रतिनिधि नियुक्त कर वापस आ गया।
दक्षिणी मुग़ल प्रदेश का विभाजन
[संपादित करें]औरंगज़ेब 1636-1644 ई. तक दक्षिण का सूबेदार रहा। इस बीच उसने औरंगबाद को मुग़लों द्वारा दक्षिण में जीते गये प्रदेशों की राजधानी बनाया। इसने दक्षिण के मुग़ल प्रदेश को निम्न सूबों में विभाजित किया-
- ख़ानदेश- इसकी राजधानी ‘बुरहानपुर’ थी। इसके पास असीरगढ़ का शक्तिशाली क़िला था।
- बरार- इसकी राजधानी ‘इलिचपुर’ थी।
- तेलंगाना- इसकी राजधानी नन्देर थी।
- अहमदनगर- इसके अन्तर्गत अहमदनगर के जीते गये क्षेत्र शामिल थे।
1644 ई. में औरंगज़ेब को विवश होकर दक्कन के राजप्रतिनिधि पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। इसका कारण उसके प्रति दारा शिकोह का निरंतर विरोध या दारा शिकोह के प्रति शाहजहाँ का पक्षपात था। तदुपरांत औरंगज़ेब 1645 ई. में गुजरात का शासक हुआ। बाद में वह बल्ख, बदख़्शाँ तथा कंधार पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया, पर ये आक्रमण असफल रहे। 1652 ई. में पुनः उसे दूसरी बार दक्कन का राजप्रतिनिधि बना कर भेजा गया। तबसे दौलताबाद या औरंगाबाद उसकी सरकार का प्रधान कार्यालय रहा।
1652-1657 ई. में दक्षिण की सूबेदारी के अपने दूसरे कार्यकाल में औरंगज़ेब ने दक्षिण में मुर्शिदकुली ख़ाँ के सहयोग से लगान व्यवस्था एवं अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। अपने इन सुधार कार्यों में औरंगज़ेब ने टोडरमल एवं मलिक अम्बर की लगान व्यवस्था को आधार बनाया।
औरंगज़ेब ने अपने द्वितीय कार्यकाल (दक्कन की सूबेदारी) के दौरान में सम्पन्न सैनिक अभियान के अन्तर्गत गोलकुण्डा के शासक कुतुबशाह को 1636 ई. में सम्पन्न संधि की अवहेलना करने एवं मीर जुमला के पुत्र मोहम्मद अमीन को क़ैद करने के अपराध में दण्ड देने के इरादे से फ़रवरी, 1656 ई. में गोलकुण्डा के दुर्ग पर घेरा डाल दिया। सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह औरंगज़ेब के आक्रमण से इतना भयभीत हो गया कि, राजकुमार हर शर्त मानने को तैयार हो गया। परिणामस्वरूप एक और संधि सम्पन्न हुई। सुल्तान ने मुग़ल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली। मुग़ल आधिपत्य के समय गोलकुण्डा विश्व के सबसे बड़े हीरा विक्रेता बाज़ार के रूप में प्रसिद्ध था।
मध्य एशिया
[संपादित करें]मयूर सिंहासन पर शाहजहाँ
शाहजहाँ ने मध्य एशिया को विजित करने के लिए 1645 ई. में शाहज़ादा मुराद एवं 1647 ई. में शाहज़ादा औरंगज़ेब को भेजा, पर उसे सफलता न प्राप्त हो सकी।
कंधार
[संपादित करें]कंधार मुग़लों एवं फ़ारसियों के मध्य लम्बे समय तक संघर्ष का कारण बना रहा। 1628 ई. में कंधार का क़िला वहाँ के क़िलेदार अली मर्दान ख़ाँ ने मुग़लों को दे दिया। 1648 ई. में इसे पुनः फ़ारसियों ने अधिकार में कर लिया। 1649 ई. एवं 1652 ई. में कंधार को जीतने के लिए दो सैन्य अभियान किए गए, परन्तु दोनों में असफलता हाथ लगी। 1653 ई. में दारा शिकोह द्वारा कंधार जीतने की कोशिश नाकाम रही। इस प्रकार शाहजहाँ के शासन काल में कंधार ने मुग़ल अधिपत्य को नहीं स्वीकारा।
शाहजहाँ की बीमारी
[संपादित करें]सन 1657 में शाहजहाँ बहुत बीमार हो गया था। उस समय उसने दारा को अपना विधिवत उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। दारा भी राजधानी में रह कर अपने पिता की सेवा−सुश्रुषा और शासन की देखभाल करने लगा। बर्नियर ने लिखा है - 'मैंने सूरत में आकर यह भी मालूम किया कि शाहजहाँ की उम्र इस समय सत्तर वर्ष के लगभग है और उसके चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हैं और कई वर्ष हुए उसने अपने चारों पुत्रों को भारतवर्ष के बड़े-बड़े चार प्रदेशों का, जिनको राज्य का एक-एक भाग कहना चाहिए, संपूर्ण अधिकार प्रदान कर दिया है। मुझे यह भी विदित हुआ है कि एक वर्ष से कुछ अधिक काल से बादशाह ऐसा बीमार है, कि उसके जीवन में भी संदेह है और उसकी ऐसी अवस्था देखकर शाहज़ादों ने राज्य-प्राप्ति के लिए मंसूबे बांधने और उद्योग करने आरंभ कर दिए हैं। अंत में भाइयों में लड़ाई छिड़ी और वह पाँच वर्ष तक चली।'
उत्तराधिकार का युद्ध
[संपादित करें]शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर उसके चारों पुत्र दारा शिकोह, शाहशुजा, औरंगज़ेब एवं मुराद बख़्श में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो गया। शाहजहाँ की मुमताज़ बेगम द्वारा उत्पन्न 14 सन्तानों में 7 जीवित थीं, जिनमें 4 लड़के तथा 3 लड़कियाँ - जहान आरा, रौशन आरा एवं गोहन आरा थीं। जहान आरा ने दारा का, रोशन आरा ने औरंगज़ेब का एवं गोहन आरा ने मुराद का समर्थन किया। शाहजहाँ के चारों पुत्रों में दारा सर्वाधिक उदार, शिक्षित एवं सभ्य था। शाहजहाँ ने दारा को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और उसे 'शाहबुलन्द इक़बाल' की उपाधि दी। उत्तराधिकारी की घोषणा से ही ‘उत्तराधिकार का युद्ध’ प्रारम्भ हुआ। युद्धों की इस श्रंखला का प्रथम युद्ध शाहशुजा एवं दारा के लड़के सुलेमान शिकोह तथा आमेर के राजा जयसिंह के मध्य 24 फ़रवरी, 1658 ई. को बहादुरपुर में हुआ, इस संघर्ष में शाहशुजा पराजित हुआ। दूसरा युद्ध औरंगज़ेब एवं मुराद बख़्श तथा दारा की सेना, जिसका नेतृत्व महाराज जसवन्त सिंह एवं कासिम ख़ाँ कर रहे थे, के मध्य 25 अप्रैल, 1658 ई. को ‘धरमट’ नामक स्थान पर हुआ, इसमें दारा की पराजय हुई। औरंगज़ेब ने इस विजय की स्मृति में ‘फ़तेहाबाद’ नामक नगर की स्थापना की। तीसरा युद्ध दारा एवं औरंगज़ेब के मध्य 8 जून, 1658 ई. को ‘सामूगढ़’ में हुआ। इसमें भी दारा को पराजय का सामना करना पड़ा। 5 जनवरी, 1659 को उत्तराधिकार का एक और युद्ध खजुवा नामक स्थान पर लड़ा गया, जिसमें जसवंत सिंह की भूमिका औरंगज़ेब के विरुद्ध थी, किन्तु औरंगज़ेब सफल हुआ।
शाहजहाँ की मृत्यु
[संपादित करें]शाहजहाँ 8 वर्ष तक आगरा के क़िले के शाहबुर्ज में क़ैद रहा। उसका अंतिम समय बड़े दु:ख और मानसिक क्लेश में बीता था। उस समय उसकी प्रिय पुत्री जहाँआरा उसकी सेवा के लिए साथ रही थी। शाहजहाँ ने उन वर्षों को अपने वैभवपूर्ण जीवन का स्मरण करते और ताजमहल को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हुए बिताये थे। अंत जनवरी मे , सन् 1666 में उसका देहांत हो गया। उस समय उसकी आयु 74 वर्ष की थी। उसे उसकी प्रिय बेगम के पार्श्व में ताजमहल में ही दफ़नाया गया था।[1]
अब्दुल हमीद लाहौरी
[संपादित करें]अब्दुल हमीद लाहौरी बादशाह शाहजहाँ का सरकारी इतिहासकार था। राज दरबार में भी उसे काफ़ी मान-सम्मान और प्रतिषठा प्राप्त थी। उसने जिस महत्त्वपूर्ण कृति की रचना की, उसका नाम 'पादशाहनामा' है। 'पादशाहनामा' को शाहजहाँ के शासन का प्रामाणिक इतिहास माना जाता है। इसमें शाहजहाँ का सम्पूर्ण वृतांत लिखा हुआ है।
शाहजहाँ के कुछ कार्य
[संपादित करें]- शाहजहाँ ने सिजदा और पायबोस प्रथा को समाप्त किया।
- इलाही संवत के स्थान पर हिजरी संवत का प्रयोग आरम्भ किया।
- गोहत्या पर से प्रतिबन्ध उठा लिया। हिन्दुओं को मुस्लिम दास रखने पर पाबन्दी लगा दी।
- अपने शासन के सातवें वर्ष तक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार अगर कोई हिन्दू स्वेच्छा से मुसलमान बन जाय, तो उसे अपने पिता की सम्पत्ति से हिस्सा प्राप्त होगा।
- हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए एक पृथक् विभाग खोला।
- पुर्तग़ालियों से युद्ध का ख़तरा होने पर उसने आगरा के गिरिजाघर को तुड़वा दिया।
- मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला की दृष्टि से शाहजहाँ ने अनेकों भव्य इमारतों का निर्माण करवाया था, जिस कारण से उसका शासनकाल मध्यकालीन भारत के इतिहास का ‘स्वर्ण काल’ कहा जाता है।
विदेशी यात्री
[संपादित करें]शाहजहाँ के शासन काल में अनेक विदेशी यात्रियों ने मुग़लकालीन भारत की यात्रा की। इन विदेशी यात्रियों में दो यात्री फ़्राँसीसी थे। जीन बपतिस्ते टेवर्नियर, जो एक जौहरी था, ने शाहजहाँ और औरंगज़ेब के शासन काल में छः बार मुग़ल साम्राज्य की यात्रा की। दूसरा यात्री फ्रेंसिस बर्नियर था, जो एक फ्राँसीसी चिकित्सक था। इस काल में आने वाले दो इतालवी यात्री पीटर मुंडी और निकोलो मनूची थे। मनूची अनेक घटनाओं विशेषतः उत्तराधिकार युद्ध प्रत्यक्षदर्शी था। उसने ‘स्टोरियो डी मोगोर’ नामक अपने यात्रा वृत्तांत में समकालीन इतिहास का बहुत सुन्दर वर्णन किया है।
औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच धरमत का युद्ध हुआ।।
धरमत का युद्ध 15 अप्रैल, 1658 ई. को लड़ा गया था।
आगरा मे बनी जामा मस्जिद का निर्माण जहांआरा (शाहजहां की पुत्री) ने करवाया।
अभिलेख
[संपादित करें]नागौर जिले के मकराना से प्राप्त 1651 ई. के अभिलेख में मिर्जा अली बेग का उल्लेख है, जो शाहजहाँ के शासन में एक स्थानीय गवर्नर था।[3] अभिलेख में एक चेतावनी का वर्णन है जिसे उन्होंने एक बावड़ी पर स्थापित किया था, जिसमें निम्न जाति के लोगों को उच्च जाति के लोगों के साथ कुआं का उपयोग करने से मना किया गया था।[4]
मुग़ल सम्राटों का कालक्रम
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सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ Gonzalez, Valerie (2016-03-03). Aesthetic Hybridity in Mughal Painting, 1526-1658 (अंग्रेज़ी में). Routledge. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-317-18487-4.
- ↑ Epigraphia Indica. Arabic and Persian supplement (in continuation of the series Epigraphia Indo-Moslemica). Public Resource. Archaeological Survey of India. 2011.सीएस1 रखरखाव: अन्य (link)
- ↑ Archaeology progress report of the A.S.I., Western Circle. Central Archeological Library. पृ॰ 40.
Under management of Mirza Ali Baig. As the date A.H. 1061 is equivalent to A.D. 1650, the 25th year must refer to Shah Jahan’s reign, Mirza Ali Baig must have been his local governor.
- ↑ A. Ghosh, (Director General of Archaeology in India) (22 December 1965). Indian Archaeology 1962-63, A Review. Government of India Press, Faridabad. पृ॰ 60.
INSCRIPTIONS OF THE MUGHALS, DISTRICTS JAIPUR, NAGAUR AND TONK.—Of the inscriptions of Shah Jahan, the one from Makrana, District Nagaur, records a notice put up on a step-well in А.Н. 1061 (A.D. 1651) by Mirza Ali Baig prohibiting the low-caste people from drawing water from the well along with the people of higher caste.