छंद
संस्कृत वाङ्मय में सामान्यतः लय को बताने के लिये छन्द शब्द का प्रयोग किया गया है।[1] विशिष्ट अर्थों या गीत में वर्णों की संख्या और स्थान से सम्बंधित नियमों को छ्न्द कहते हैं जिनसे काव्य में लय और रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियां, लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों में, मात्रा बताती हैं और जब किसी काव्य रचना में ये एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम दे दिया जाता है और लघु-गुरु मात्राओं के अनुसार वर्णों की यह व्यवस्था एक विशिष्ट नाम वाला छन्द कहलाने लगती है, जैसे चौपाई, दोहा, आर्या, इन्द्र्वज्रा, गायत्री छन्द इत्यादि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णों की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिनका पालन कवि को करना होता है। इस दूसरे अर्थ में यह अंग्रेजी के 'मीटर'[2] अथवा उर्दू-फ़ारसी के 'रुक़न' (अराकान) के समकक्ष है। हिन्दी साहित्य में भी छन्द के इन नियमों का पालन करते हुए काव्यरचना की जाती थी, यानि किसी न किसी छन्द में होती थीं। विश्व की अन्य भाषाओँ में भी परम्परागत रूप से कविता के लिये छन्द के नियम होते हैं।
छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। चूँकि, आचार्य पिंगल द्वारा रचित 'छन्दःशास्त्र' सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है जिसे 'पिंगलशास्त्र' भी कहा जाता है।[3] यदि गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्द’ है। पद्यरचना का समुचित ज्ञान छन्दशास्त्र की जानकारी के बिना नहीं होता। काव्य और छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’ नहीं आना चाहिए।
इतिहास
प्राचीन काल के ग्रंथों में संस्कृत में कई प्रकार के छन्द मिलते हैं जो वैदिक काल के जितने प्राचीन हैं। वेद के सूक्त भी छन्दबद्ध हैं। पिंगल द्वारा रचित छन्दशास्त्र इस विषय का मूल ग्रन्थ है। छन्द पर चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुई है।
शब्दार्थ
वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है। छन्दस् शब्द 'छद' धातु से बना है। इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - 'जो अपनी इच्छा से चलता है'। इसी मूल से स्वच्छंद जैसे शब्द आए हैं। अत: छंद शब्द के मूल में गति का भाव है।
किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम साहित्य है। संसार में जितना साहित्य मिलता है ’ ऋग्वेद ’ उनमें प्राचीनतम है। ऋग्वेद की रचना छंदोबद्ध ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशेष कथन हेतु छंदो का प्रयोग होता था।छंद को पद्य रचना का मापदंड कहा जा सकता है। बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को साकार नहीं किया जा सकता।
छंद के अंग
छंद के निम्नलिखित अंग होते हैं -
- गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं।
- यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं।
- तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं।
- मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा २ प्रकार की होती है लघु और गुरु। ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। लघु मात्रा का मान १ होता है और उसे। चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान २ होता है और उसे ऽ चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है।
- गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों की संख्या ८ है - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)।
गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा। सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
। ऽ ऽ can ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
गण | चिह्न | उदाहरण | प्रभाव |
---|---|---|---|
यगण (य) | ।ऽऽ | नहाना | शुभ |
मगण (मा) | ऽऽऽ | आजादी | शुभ |
तगण (ता) | ऽऽ। | चालाक | अशुभ |
रगण (रा) | ऽ।ऽ | पालना | अशुभ |
जगण (ज) | ।ऽ। | करील | अशुभ |
भगण (भा) | ऽ।। | बादल | शुभ |
नगण (न) | ।।। | कमल | शुभ |
सगण (स) | ।।ऽ | कमला | अशुभ |
छंद के प्रकार
- मात्रिक छंद ː जिन छंदों में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है उन्हें मात्रिक छंद कहा जाता है। जैसे - अहीर, तोमर, मानव; अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका, चौपाई; पीयूषवर्ष, सुमेरु, राधिका, रोला, दिक्पाल, रूपमाला, गीतिका, सरसी, सार, हरिगीतिका, तांटक, वीर या आल्हा
- वर्णिक छंद ː वर्णों की गणना पर आधारित छंद वर्णिक छंद कहलाते हैं। जैसे - प्रमाणिका; स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक; वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, द्रुतविलम्बित, तोटक; वसंततिलका; मालिनी; पंचचामर, चंचला; मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, शार्दूल विक्रीडित, स्त्रग्धरा, सवैया, घनाक्षरी, रूपघनाक्षरी, देवघनाक्षरी, कवित्त / मनहरण। इसके दो प्रकार हैं-
- १. साधारण
- २. दण्डक
- 1. साधारण वर्णिक छंद में प्रत्येक चरण में २६ वर्ण तक होते हैं। जैसे - सवैया छंद
- 2. जिस छंद रचना में प्रत्येक चरण में २६ से अधिक वर्ण होते हैं , उसे दण्डक वर्णिक छंद कहा जाता है । जैसे- घनाक्षरी छंद।
- वर्णवृत ː सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी
- मुक्त छंदː भक्तिकाल तक मुक्त छंद का अस्तित्व नहीं था, यह आधुनिक युग की देन है। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं। मुक्त छंद नियमबद्ध नहीं होते, केवल स्वछंद गति और भावपूर्ण यति ही मुक्त छंद की विशेषता हैं।
- मुक्त छंद का उदाहरण -
- वह आता
- दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
- पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
- चल रहा लकुटिया टेक,
- मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को,
- मुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता,
- दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
काव्य में छंद का महत्त्व
- छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
- छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
- छंद में स्थायित्व होता है।
- छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
- छंद के निश्चित आधार पर आधारित होने के कारण वे सुगमतापूर्वक कण्ठस्त हो जाते हैं।
छंद का उदाहरण
- भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
- अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
- तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
- सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥
अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृत बूँद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।
छंदों के कुछ प्रकार
दोहा मात्रिक छंद है। इसे अर्द्ध सम मात्रिक छंंद कहते हैं । दोहे में चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। दोहे के मुख्य 23 प्रकार हैं:- 1.भ्रमर, 2.सुभ्रमर, 3.शरभ, 4.श्येन, 5.मण्डूक, 6.मर्कट, 7.करभ, 8.नर, 9.हंस, 10.गयंद, 11.पयोधर, 12.बल, 13.पान, 14.त्रिकल 15.कच्छप, 16.मच्छ, 17.शार्दूल, 18.अहिवर, 19.व्याल, 20.विडाल, 21.उदर, 22.श्वान, 23.सर्प। दोहे में विषम एवं सम चरणों के कलों का क्रम निम्नवत होता है
विषम चरणों के कलों का क्रम 4+4+3+2 (चौकल+चौकल+त्रिकल+द्विकल) 3+3+2+3+2 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल+द्विकल)
सम चरणों के कलों का क्रम 4+4+3 (चौकल+चौकल+त्रिकल) 3+3+2+3 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल) उदाहरण -
- रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुःख, छाया-धूप।
- यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप॥
दोही दोहे का ही एक प्रकार है। इसके विषम चरणों में १५-१५ एवं सम चरणों में ११-११ मात्राऐं होती हैं।उदाहरण-
- प्रिय पतिया लिख-लिख थक चुकी,मिला न उत्तर कोय।
- सखि! सोचो अब में क्या करूँ,सूझे राह न कोय।।
रोला मात्रिक सम छंद होता है। इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक चरण यति पर दो पदों में विभाजित हो जाता है l
- पहले पद के कलों का क्रम निम्नवत होता है -
4+4+3 (चौकल+चौकल+त्रिकल) अथवा 3+3+2+3 (त्रिकल+त्रिकल+द्विकल+त्रिकल)
- दूसरे पद के कलों का क्रम निम्नवत होता है -
3+2+4+4 (त्रिकल+द्विकल+चौकल+चौकल) अथवा 3+2+3+3+2 (त्रिकल+द्विकल+त्रिकल+त्रिकल+द्विकल) उदाहरण -
- यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
- पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
सोरठा अर्द्धसम मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण -
- जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
- करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥
चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। सिंह विलोकित, पद्धरि, अरिल्ल, अड़िल्ल, पादाकुलक आदि छंद चौपाई के समान लक्षण वाले छंद हैं।उदाहरण -
- बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
- सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
- अमिय मूरिमय चूरन चारू।
- समन सकल भव रुज परिवारू॥
कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण -
- कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
- खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
- उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
- बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
- कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
- सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
गीतिका (छंद) मात्रिक सम छंद है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं। १४ और १२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु आवश्यक है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है। उदाहरण-
- खोजते हैं साँवरे को,हर गली हर गाँव में।
- आ मिलो अब श्याम प्यारे,आमली की छाँव में।।
- आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
- गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।।
हरिगीतिका चार चरणों वाला एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16 व 12 के विराम से 28 मात्रायें होती हैं तथा अंत में लघु गुरु आना अनिवार्य है। हरिगीतिका में 16 और 12 मात्राओं पर यति होती है। प्रत्येक चरण के अन्त में रगण आना आवश्यक है।
विशेष: 2212 की चार आवृत्तियों से बना रूप हरिगीतिका छंद का सर्वाधिक व्यावहारिक रूप है जिसे मिश्रितगीतिका कह सकते हैं। वस्तुतः 11212 की चार आवृत्तियों से हरिगीतिका , 2212 की चार आवृत्तियों से श्रीगीतिका तथा दोनों स्वरक स्वैच्छिक चार आवृत्तियों से मिश्रितगीतिका छंद बनता है।
उदाहरण-
- प्रभु गोद जिसकी वह यशोमति,दे रहे हरि मान हैं ।
- गोपाल बैठे आधुनिक रथ,पर सहित सम्मान हैं ॥
- मुरली अधर धर श्याम सुन्दर,जब लगाते तान हैं ।
- सुनकर मधुर धुन भावना में,बह रहे रसखान हैं॥
बरवै अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसमें प्रथम एवं तृतीय चरण में १२ -१२ मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में ७-७ मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण होता है।उदाहरण-
- चम्पक हरवा अंग मिलि,अधिक सुहाय।
- जानि परै सिय हियरे,जब कुंभिलाय।।
छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। यह संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पद तथा उल्लाला (15+13) के दो पद के योग से बनता है।उदाहरण-
- डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर।
- ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
- दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर।
- सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर।
- चौंकि बिरंचि शंकर सहित,कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
- ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ।।
उल्लाला सम मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 13-13 मात्राओं के हिसाब से 26 मात्रायें तथा 15-13 के हिसाब से 28 मात्रायें होती हैं। इस तरह उल्लाला के दो भेद होते है। तथापि 13 मात्राओं वाले छन्द में लघु-गुरु का कोई विशेष नियम नहीं है लेकिन 11वीं मात्रा लघु ही होती है।15 मात्राओं वाले उल्लाला छन्द में 13 वीं मात्रा लघु होती है। 13 मात्राओं वाला उल्लाला बिल्कुल दोहे की तरह होता है,बस दूसरे चरण में केवल दो मात्रायें बढ़ जाती हैं। प्रथम चरण में लघु-दीर्घ से विशेष फर्क नहीं पड़ता। उल्लाला छन्द को चन्द्रमणि भी कहा जाता है।उदाहरण-
- यों किधर जा रहे हैं बिखर,कुछ बनता इससे कहीं।
- संगठित ऐटमी रूप धर,शक्ति पूर्ण जीतो मही ॥
सवैया चार चरणों का समपद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहा जाता है।सवैये के मुख्य १४ प्रकार हैं:- १. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखी, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी। उदाहरण-
- मानुस हौं तो वही रसखान,बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
- जो पसु हौं तो कहा बस मेरो,चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
- पाहन हौं तो वही गिरि को,जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
- जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
- सेस गनेस महेस दिनेस,सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
- जाहि अनादि अनंत अखण्ड,अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥
- नारद से सुक व्यास रहे,पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं।
- ताहि अहीर की छोहरियाँ,छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
- कानन दै अँगुरी रहिहौं,जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं।
- माहिनि तानन सों रसखान,अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥
- टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,काल्हि कोई कितनो समझैहैं।
- माई री वा मुख की मुसकान,सम्हारि न जैहैं,न जैहैं,न जैहैं॥
कवित्त एक वार्णिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में गुरू वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति रहना चाहिये। इसके दो प्रकार हैं:- 1.मनहरण कवित्त और घनाक्षरी। घनाक्षरी छंद के दो भेद हैं:- 1.रूप घनाक्षरी, 2.देव घनाक्षरी। उदाहरण-
- नाव अरि लाब नहि,उतरक दाब नहि,
- एक बुद्धि आब नहि,सागर अपार में।
- वीर अरि छोट नहि, संग एक गोट नहि,
- लंका लघु कोट नहि, विदित संसार में।।
मधुमालती छंद में प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 212 वाचिक भार होता है, 5-12 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।उदाहरण -
- होंगे सफल,धीरज धरो ,
- कुछ हम करें,कुछ तुम करो ।
- संताप में , अब मत जलो ,
- कुछ हम चलें , कुछ तुम चलो ।।
विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है। उदाहरण -
- तुम्हारे नाम की माला,
- तुम्हारे नाम की हाला ।
- हुआ जीवन तुम्हारा है,
- तुम्हारा ही सहारा है ।।
मनोरम
मनोरम छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं ,आदि में 2 और अंत में 211 या 122 होता है ,3-10 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है।उदाहरण-
- उलझनें पूजालयों में ,
- शांति है शौचालयों में।
- शान्ति के इस धाम आयें,
- उलझनों से मुक्ति पायें।।
पुष्पिताग्रा
एक अर्धसम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरण में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दूसरे और चौथे चरण में एक नगण दो जगण, एक रगण और गुरु होता है । जैसे -
- प्रभु सम नहिं अन्य कोइ दाता।
- सुधन जु ध्यावत तीन लोक त्राता।
- सकल असत कामना बिहाई।
- हरि नित सेवहु मित्त चित्त लाई।
शक्ति छंद में 18 मात्राओं के चार चरण होते हैं, अंत में वाचिक भार 12 होता है तथा 1,6,11,16 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य होता है। उदाहरण -
- चलाचल चलाचल अकेले निडर,
- चलेंगे हजारों, चलेगा जिधर।
- दया-प्रेम की ज्योति उर में जला,
- टलेगी स्वयं पंथ की हर बेला ।।
पीयूष वर्ष छंद में 10+9=19 मात्राओं के चार चरण होते हैं,अंत में 12 होता है तथा 3,10,17 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है। यदि यति अनिवार्य न हो और अंत में 2 = 11 की छूट हो तो यही छंद 'आनंदवर्धक' कहलाता है।उदाहरण-
- लोग कैसे , गन्दगी फैला रहे ,
- नालियों में छोड़ जो मैला रहे।
- नालियों पर शौच जिनके शिशु करें,
- रोग से मारें सभी को खुद मरें।।
सुमेरु छंद के प्रत्येक चरण में 12+7=19 अथवा 10+9=19 मात्राएँ होती हैं ; 12,7 अथवा 10,9 पर यति होतो है ; इसके आदि में लघु 1 आता है जबकि अंत में 221,212,121,222 वर्जित हैं तथा 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण-
- लहै रवि लोक सोभा , यह सुमेरु ,
- कहूँ अवतार पर , ग्रह केर फेरू।
- सदा जम फंद सों , रही हौं अभीता ,
- भजौ जो मीत हिय सों , राम सीता।।
सगुण छंद के प्रयेक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं , आदि में 1 और अंत में 121 होता है,1,6,11, 16,19 वी मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -
- सगुण पञ्च चारौ जुगन वन्दनीय ,
- अहो मीत, प्यारे भजौ मातु सीय।
- लहौ आदि माता चरण जो ललाम ,
- सुखी हो मिलै अंत में राम धाम।।
शास्त्र छंद के प्रत्येक चरण में 20 मात्राएँ होती हैं ; अंत में 21 होता है तथा 1,8,15,20 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -
- मुनीके लोक लहिये शास्त्र आनंद ,
- सदा चित लाय भजिये नन्द के नन्द।
- सुलभ है मार प्यारे ना लगै दाम ,
- कहौ नित कृष्ण राधा और बलराम।।
सिन्धु छंद के प्रत्येक चरण में 21 मात्राएँ होती है और 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -
- लखौ त्रय लोक महिमा सिन्धु की भारी ,
- तऊ पुनि गर्व के कारण भयो खारी।
- लहे प्रभुता सदा जो शील को धारै ,
- दया हरि सों तरै कुल आपनो तारै।।
बिहारी छंद के प्रत्येक चरण में 14+8=22 मात्राएँ होती हैं,14,8 मात्रा पर यति होती है तथा 5,6,11,12,17,18 वीं मात्रा लघु 1 होती है। उदाहरण -
- लाचार बड़ा आज पड़ा हाथ बढ़ाओ ,
- हे श्याम फँसी नाव इसे पार लगाओ।
- कोई न पिता मात सखा बन्धु न वामा ,
- हे श्याम दयाधाम खड़ा द्वार सुदामा।।
दिगपाल छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं ;12,24 मात्रा पर यति होती है,आदि में समकल होता है और 5,8,17,20 वीं मात्रा अनिवार्यतः लघु 1 होती है।इस छंद को मृदुगति भी कहते हैं।उदाहरण-
- सविता विराज दोई , दिक्पाल छन्द सोई
- सो बुद्धि मंत प्राणी, जो राम शरण होई।
- रे मान बात मेरी, मायाहि त्यागि दीजै
- सब काम छाँड़ि मीता, इक राम नाम लीजै।।
सारस छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं , 12,12 मात्रा पर यति होती है ;आदि में विषम कल होता है और 3,4,9,10,15,16,21,22 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदाहरण-
- भानु कला राशि कला, गादि भला सारस है
- राम भजत ताप भजत, शांत लहत मानस है।
- शोक हरण पद्म चरण, होय शरण भक्ति सजौ
- राम भजौ राम भजौ, राम भजौ राम भजौ।।
गीता छंद के प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं; 14,12 पर यति होती है , आदि में सम कल होता है ; अंत में 21 आता है और 5,12,19,26 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदहारण -
- कृष्णार्जुन गीता भुवन, रवि सम प्रकट सानंद l
- जाके सुने नर पावहीं, संतत अमित आनंद l
- दुहुं लोक में कल्याण कर, यह मेट भाव को शूल l
- तातें कहौं प्यारे कवौं, उपदेश हरि ना भूल ll
शुद्ध गीता छंद के प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं ; 14,13 मात्रा पर यति होती है . आदि में 21 होता है तथा 3,10,17,24,27 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -
- मत्त चौदा और तेरा, शुद्ध गीता ग्वाल धार
- ध्याय श्री राधा रमण को, जन्म अपनों ले सुधार।
- पाय के नर देह प्यारे, व्यर्थ माया में न भूल
- हो रहो शरणै हरी के, तौ मिटै भव जन्म शूल।।
विधाता छंद के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है ; 14,14 मात्रा पर यति होती है ; 1, 8, 15, 22 वीं मात्राएँ लघु 1 होती हैं। इसे शुद्धगा भी कहते हैं। उदाहरण -
- ग़ज़ल हो या भजन कीर्तन,सभी में प्राण भर देता ,
- अमर लय ताल से गुंजित,समूची सृष्टि कर देता।
- भले हो छंद या सृष्टा,बड़ा प्यारा 'विधाता' है ,
- सुहानी कल्पना जैसी,धरा सुन्दर सजाता है।।
हाकलि एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 14 मात्रा होती हैं , तीन चौकल के बाद एक द्विकल होता है। यदि तीन चौकल अनिवार्य न हों तो यही छंद 'मानव' कहलाता है। उदाहरण -
- बने बहुत हैं पूजालय,
- अब बनवाओ शौचालय।
- घर की लाज बचाना है,
- शौचालय बनवाना है।।
चौपई एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रयेक चरण में 15 मात्रा होती हैं, अंत में 21 अनिवार्य होता है, कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को जयकरी भी कहते हैं। उदाहरण :
- भोंपू लगा-लगा धनवान,
- फोड़ रहे जनता के कान।
- ध्वनि-ताण्डव का अत्याचार,
- कैसा है यह धर्म-प्रचार।।
पदपादाकुलक एक सम मात्रिक छंद है। इसके एक चरण में 16 मात्रा होती हैं,आदि में द्विकल अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल वर्जित होता है, पहले द्विकल के बाद यदि त्रिकल आता है तो उसके बाद एक और त्रिकल आता है,कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकान्त होते है।उदाहरण :
- कविता में हो यदि भाव नहीं,
- पढने में आता चाव नहीं।
- हो शिल्प भाव का सम्मेलन,
- तब काव्य बनेगा मनभावन।।
श्रृंगार एक सम मात्रिक छंद है। इनके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा होती हैं, आदि में क्रमागत त्रिकल-द्विकल (3+2) और अंत में क्रमागत द्विकल-त्रिकल (2+3) आते हैं, कुल चार चरण होते हैं,क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
- भागना लिख मनुजा के भाग्य,
- भागना क्या होता वैराग्य।
- दास तुलसी हों चाहे बुद्ध,
- आचरण है यह न्याय विरुद्ध।।
राधिका एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 13,9 पर यति होती है, यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है, कुल चार चरण होते हैं , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :
- मन में रहता है काम , राम वाणी में,
- है भारी मायाजाल, सभी प्राणी में।
- लम्पट कपटी वाचाल, पा रहे आदर,
- पुजता अधर्म है ओढ़, धर्म की चादर।।
यह एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 12,10 पर यति होती है , यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है औए अंत में 22 आता है। यदि अंत में एक ही गुरु 2 आता है तो उसे उड़ियाना छंद कहते हैं l कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।
कुण्डल का उदाहरण :
- गहते जो अम्ब पाद, शब्द के पुजारी,
- रचते हैं चारु छंद, रसमय सुखारी।।
- देती है माँ प्रसाद, मुक्त हस्त ऐसा,
- तुलसी रसखान सूर, पाये हैं जैसा।।
उड़ियाना का उदाहरण :
- ठुमकि चालत रामचंद्र, बाजत पैंजनियाँ,
- धाय मातु गोद लेत, दशरथ की रनियाँ।
- तन-मन-धन वारि मंजु, बोलति बचनियाँ,
- कमल बदन बोल मधुर, मंद सी’ हँसनियाँ।।
रूपमाला एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 24 मात्राएं होती हैं एवं 14,10 पर यति होती है, आदि और अंत में वाचिक भार 21 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों में तुकांत होता है। इसे मदन भी कहते हैं। उदाहरण :
- देह दलदल में फँसे हैं, साधना के पाँव,
- दूर काफी दूर लगता, साँवरे का गाँव।
- क्या उबारेंगे कि जिनके, दलदली आधार,
- इसलिए आओ चलें इस, धुंध के उसपार।।
मुक्तामणि एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होतीं हैं और 13,12 पर यति होती है। यति से पहले वाचिक भार 12 और चरणान्त में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं; क्रमागत दो-दो चरण तुकांत। दोहे के क्रमागत दो चरणों के अंत में एक लघु बढ़ा देने से मुक्तामणि का एक चरण बनता है। उदाहरण :
- विनयशील संवाद में, भीतर बड़ा घमण्डी,
- आज आदमी हो गया, बहुत बड़ा पाखण्डी।
- मेरा क्या सब आपका, बोले जैसे त्यागी,
- जले ईर्ष्या द्वेष में, बने बड़ा बैरागी।।
गगनांगना एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होती हैं और 16,9 पर यति होती है एवं चरणान्त में 212। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :
- कब आओगी फिर, आँगन की, तुलसी बूझती
- किस-किस को कैसे समझाऊँ, युक्ति न सूझती।
- अम्बर की बाहों में बदरी, प्रिय तुम क्यों नहीं
- भारी है जीवन की गठरी, प्रिय तुम क्यों नहीं।।
विष्णुपद एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 2 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
- अपने से नीचे की सेवा, तीर-पड़ोस बुरा,
- पत्नी क्रोधमुखी यों बोले, ज्यों हर शब्द छुरा।
- बेटा फिरे निठल्लू बेटी, खोये लाज फिरे,
- जले आग बिन वह घरवाला, घर पर गाज गिरे।।
शंकर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है एवं चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होता है।उदाहरण :
- सुरभित फूलों से सम्मोहित, बावरे मत भूल
- इन फूलों के बीच छिपे हैं, घाव करते शूल।
- स्निग्ध छुअन या क्रूर चुभन हो, सभी से रख प्रीत
- आँसू पीकर मुस्काता चल, यही जग की रीत।।
सरसी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 27 मात्राएं होती हैं औथ 16,11 पर यति होती है, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को कबीर या सुमंदर भी कहते हैं। चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l उदाहरण :
- पहले लय से गान हुआ फिर,बना गान ही छंद,
- गति-यति-लय में छंद प्रवाहित,देता उर आनंद।
- जिसके उर लय-ताल बसी हो,गाये भर-भरतान,
- उसको कोई क्या समझाये,पिंगल छंद विधान।।
यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 22 मात्रा होती हैं एवं 8,8,6 पर यति होती है अंत में 112। चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :
- व्यस्त रहे जो, मस्त रहे वह, सत्य यही,
- कुछ न करे जो, त्रस्त रहे वह, बात सही।
- जो न समय का, मूल्य समझता, मूर्ख बड़ा,
- सब जाते उस, पार मूर्ख इस, पार खड़ा।।
यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 23 मात्रा होती हैं एवं 16,7 पर यति होती है और चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
- बीमारी में चाहे जितना, सह लो क्लेश,
- पर रिश्ते-नाते में देना, मत सन्देश।
- आकर बतियायें, इठलायें, निस्संकोच,
- चैन लूट रोगी का, खायें, बोटी नोच।।
सार एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 28 मात्राएं होतीं हैं और 16,12 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :
- कितना सुन्दर कितना भोला,था वह बचपन न्यारा
- पल में हँसना पल में रोना,लगता कितना प्यारा।
- अब जाने क्या हुआ हँसी के,भीतर रो लेते हैं
- रोते-रोते भीतर-भीतर,बाहर हँस देते हैं।।
लावणी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 30 मात्राएं होतीं हैं और 16,14 पर यति होती है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है। उदाहरण :
- तिनके-तिनके बीन-बीन जब,पर्ण कुटी बन पायेगी,
- तो छल से कोई सूर्पणखा,आग लगाने आयेगी।
- काम अनल चन्दन करने का,संयम बल रखना होगा,
- सीता सी वामा चाहो तो,राम तुम्हें बनना होगा।।
वीर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 31 मात्राएं होतीं हैं और 16,15 पर यति होती है। चरणान्त में वाचिक भार 21 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होते हैं। इसे आल्हा भी कहते हैं। उदाहरण :
- विनयशीलता बहुत दिखाते,लेकिन मन में भरा घमण्ड,
- तनिक चोट जो लगे अहम् को,पल में हो जाते उद्दण्ड l
- गुरुवर कहकर टाँग खींचते,देखे कितने ही वाचाल,
- इसीलिये अब नया मंत्र यह,नेकी कर सीवर में डाल l
त्रिभंगी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 32 मात्राएं होतीं हैं और 10,8,8,6 पर यति होती है एवं चरणान्त में 2 होता है। कुल चार चरण होते हैं और।क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। पहली तीन या दो यति पर आतंरिक तुकांत होने से छंद का लालित्य बढ़ जाता है। तुलसी दास ने पहली दो यति पर आतंरिक तुकान्त का अनिवार्यतः प्रयोग किया है। उदाहरण :
- तम से उर डर-डर, खोज न दिनकर, खोज न चिर पथ, ओ राही,
- रच दे नव दिनकर, नव किरणें भर, बना डगर नव, मन चाही l
- सद्भाव भरा मन, ओज भरा तन, फिर काहे को, डरे भला,
- चल-चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला l
कुण्डलिनी एक विषम मात्रिक छंद है। दोहा और अर्ध रोला को मिलाने से कुण्डलिनी छंद बनता है जबकि दोहा के चतुर्थ चरण से अर्ध रोला का प्रारंभ होता हो (पुनरावृत्ति)। इस छंद में यथारुचि प्रारंभिक शब्द या शब्दों से छंद का समापन किया जा सकता है (पुनरागमन), किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। दोहा और रोला छंदों के लक्षण अलग से पूर्व वर्णित हैं l कुण्डलिनी छंद में कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।
- कुण्डलिनी = दोहा + अर्धरोला
उदाहरण :
- जननी जनने से हुई, माँ ममता से मान,
- जननी को ही माँ समझ, भूल न कर नादान।
- भूल न कर नादान, देख जननी की करनी,
- करनी से माँ बने, नहीं तो जननी जननी।।
इसके सम चरण में 11-11 और विषम चरण में 10 वर्ण होते हैं। विषम चरणों में दो सगण , एक जगण , एक सगण और एक लघु व एक गुरु होते हैं। जैसे -
- विधि ना कृपया प्रबोधिता,
- सहसा मानिनि सुख से सदा
- करती रहती सदैव ही
- करुण की मद-मय साधना।।
इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में ८-८ वर्ण होते हैं। चरण में वर्णों का क्रम लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु (।ऽ।ऽ।ऽ।ऽ) होता है। गणों में लिखे तो जगण-रगण-लगण-गगण। उदाहरण :
- नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशीलकोमलम्।
- भजामि ते पदाम्बुजम् अकामिनां स्वधामदम्॥
इसे वंशस्थविल अथवा वंशस्तनित भी कहते हैं । इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं और गणों का क्रम होता है – जगण, तगण, जगण, रगण। प्रत्येक चरण में पाँचवे और बारहवे वर्ण के बाद यति होती है। जैसे -
- गिरिन्द्र में व्याप्त विलोकनीय थी,
- वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी
- अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी
- असेत जम्बालिनी कूल जम्बुकीय।।
शिखरिणी छंद में क्रमशः यगण, मगण, नगण, सगण, भगण होने से 12 वर्ण होते हैं और लघु तथा गुरु के क्रम से प्रत्येक चरण में वर्ण रखे जाते हैं और 6 तथा 11 वर्णों के बाद यति होती है। उदाहरण :
- यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
- तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
- यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादधिगतं
- तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥
इसमें 19 वर्ण होते हैं। 12, 7 वर्णों पर विराम होता है। हर चरण में मगण , सगण , जगण , सगण , तगण , और बाद में एक गुरु होता है। उदाहरण :
- रे रे चातक ! सावधान-मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्
- अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वे तु नैतादृशाः ।
- केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा
- यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः॥
इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के चरण जब एक ही छन्द में प्रयुक्त हों तो उस छन्द को उपजाति कहते हैं। उदाहरण :
- नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
- पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥
वसन्ततिलका छन्द सम वर्ण वृत्त छन्द है। यह चौदह वर्णों वाला छन्द है। 'तगण', 'भगण', 'जगण', 'जगण' और दो गुरुओं के क्रम से इसका प्रत्येक चरण बनता है।उदाहरण-
- हे हेमकार पर दुःख-विचार-मूढ
- किं माँ मुहुः क्षिपसि वार-शतानि वह्नौ।
- सन्दीप्यते मयि तु सुप्रगुणातिरेको
- लाभः परं तव मुखे खलु भस्मपातः॥
इन्द्रवज्रा छन्द एक सम वर्ण वृत्त छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं। इन्द्रवज्रा के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु के क्रम से वर्ण रखे जाते हैं।उदाहरण-
- विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः
- प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
- लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो,
- सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥
उपेन्द्रवज्रा एक सम वर्ण वृत्त छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 11-11 वर्ण होते हैं। उपेन्द्रवज्रा छन्द के प्रत्येक चरण में 'जगण', 'तगण', 'जगण' और दो गुरु वर्णों के क्रम से वर्ण होते हैं। उदाहरण:
- त्वमेव माता च पिता त्वमेव
- त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
- त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
- त्वमेव सर्वं मम देव-देव॥
मालिनी छन्द
मालिनी एक सम वर्ण वृत छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में "न न म य य" अर्थात दो 'नगण' एक 'मगण' और दो 'यगण' के क्रम से 15 वर्ण होते हैं। आठवें और सातवें वर्णों पर यति होती है। उदाहरण-
- प्रिय पति वह मेरा, प्राण प्यारा कहाँ है।
- दुख-जलधि निमग्ना, का सहारा कहाँ है।
- अब तक जिसको मैं, देख के जी सकी हूँ।
- वह हृदय हमारा, नेत्र तारा कहाँ है।।
स्नग्धरा
एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में (म र भ न य य य) होता है और 8, 8, 8 पर यति होती है । उदाहरण -
- मोरे भौने ययू यो कहहु सुत कहाँ तें लिये आवते हो।
- भा का आनंद आजी तुम फिरि फिरि कै माथ जो नावते हो।
- बोले माता! विलोक्यो फिरत सह चमू वाग में स्नग्धरे ज्यों।
- काढ़ी माला रू मारे विपुल रिपुबली अश्वलो जीति केत्यों।
ध्यातव्य
- वाचिक भार अर्थात लय को ध्यान में रखते हुए मापनी के किसी भी गुरु 2 के स्थान पर दो लघु 11 का प्रयोग किया जाना।
- पिंगल के अनुसार झ, ह, र, भ, और ष इन पाँचों अक्षरों को छंद के आरंभ में रखना वर्जित है, इन पाँचों को दग्धराक्षर कहते हैं। दग्धराक्षरों की कुल संख्या 19 है परंतु उपर्युक्त पाँच विशेष हैं। वे 19 इस प्रकार हैं:- ट, ठ, ढ, ण, प, फ़, ब, भ, म, ङ्, ञ, त, थ, झ, र, ल, व, ष, ह।
परिहार- कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा दग्धराक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता। यदि मंगलसूचक अथवा देवतावाचक शब्द से किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार हो जाता है। उदाहरण :
- गणेश जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज।
- निष्कंटक सब मिलेगा, मूल साथ में ब्याज।।
उपर्युक्त दोहे के प्रारंभ में ज-गणात्मक शब्द है जिसे अशुभ माना गया है परंतु देव-वंदना के कारण उसका दोष-परिहार हो गया है।
- द्विकल का अर्थ है 2 या 11 मात्राएं, त्रिकल का अर्थ है 21 या 12 या 111 मात्राएं, चौकल का अर्थ है 22 या 211 या 112 या 121 या 1111 मात्राएं
- चौपाई आधारित छंद:-
16 मात्रा के चौपाई छंद में कुछ मात्राएँ घटा-बढ़ाकर अनेक छंद बनते है। ऐसे चौपाई आधारित छंदों का चौपाई छंद से आतंरिक सम्बन्ध यहाँ पर दिया जा रहा है। इससे इन छंदों को समझने और स्मरण रखने में बहुत सुविधा हो सकती है:-
- चौपाई – 1 = 15 मात्रा का चौपई छंद, अंत 21
- चौपाई + 6 = 22 मात्रा का रास छंद, अंत 112
- चौपाई + 7 = 23 मात्रा का निश्चल छंद, अंत 21
- चौपाई + 9 = 25 मात्रा का गगनांगना छंद, अंत 212
- चौपाई + 10 = 26 मात्रा का शंकर छंद, अंत 21
- चौपाई + 10 = 26 मात्रा का विष्णुपद छंद, अंत 2
- चौपाई + 11 = 27 मात्रा का सरसी/कबीर छंद, अंत 21
- चौपाई + 12 = 28 मात्रा का सार छंद, अंत 22
- चौपाई + 14 = 30 मात्रा का ताटंक छंद, अंत 222
- चौपाई + 14 = 30 मात्रा का कुकुभ छंद, अंत 22
- चौपाई + 14 = 30 मात्रा का लावणी छंद, अंत स्वैच्छिक
- चौपाई + 15 = 31 मात्रा का वीर/आल्हा छंद, अंत 21
- दोहे से लेकर कवित्त और हाकलि से लेकर शार्दूल विक्रीडित तक सभी छंद मापनीमुक्त हैं और मधुमालती से लेकर विधाता तक सभी छंद मापनीयुक्त हैं।
- कुण्डलिनी छंद को लिखने के कुछ विशेष नियम निम्न हैं:-
- (क) इस छंद के प्रथम दो चरणों के मात्राभार (13,11) और नियम एक जैसे हैं तथा उससे भिन्न अंतिम दो चरणों के मात्राभार (11,13) और नियम एक जैसे हैं। अस्तु यह छंद विषम मात्रिक है।
- (ख) दोहे के चतुर्थ चरण की अर्धरोला के प्रारंभ में पुनरावृत्ति सार्थक होनी चाहिए अर्थात दुहराया गया अंश दोनों चरणों में सार्थकता के साथ आना चाहिए।
- (ग) क्योंकि कुण्डलिनी के अंत में वाचिक भार 22 आता है, इसलिए यदि पुनरागमन रखना है तो इसका प्रारंभ भी वाचिक भार 22 या गागा से ही होना चाहिए अन्यथा पुनरागमन दुरूह या असंभव हो जायेगा l
- (घ) कथ्य का मुख्य भाग अंतिम चरणों में केन्द्रित होना चाहिए, तभी छंद अपना पूरा प्रभाव छोड़ पाता है।
- उपजाति, शार्दूल विक्रीडित, प्रमाणिका, वसन्ततिलका, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, शिखरिणी के केवल उदाहरण संस्कृत के हैं, वे स्वयं संस्कृत के छंद नहीं हैं एवं वे वैदिक छंदों की श्रेणी में भी नहीं आते।
इन्हें भी देखें
- भारतीय छन्दशास्त्र
- वैदिक छंद
- शिव तांडव स्तोत्र (पञ्चचामर छंद)
सन्दर्भ
- ↑ Mukherjee, Sujit. A Dictionary of Indian Literature: Beginnings-1850 (गूगल पुस्तक) (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि २९ दिसम्बर २०१४. नामालूम प्राचल
|origdate=
की उपेक्षा की गयी (|orig-year=
सुझावित है) (मदद);|origdate=
में पाइप ग़ायब है (मदद) - ↑ Mukherjee, Sujit. A Dictionary of Indian Literature: Beginnings-1850 (गूगल पुस्तक) (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि २९ दिसम्बर २०१४. नामालूम प्राचल
|origdate=
की उपेक्षा की गयी (|orig-year=
सुझावित है) (मदद);|origdate=
में पाइप ग़ायब है (मदद) - ↑ http://www.anubhuti-hindi.org/kavyacharcha/Chhand.htm
बाहरी कड़ियाँ
- हिन्दी छन्दोलक्षण (गूगल पुस्तक ; लेखक - नारायण दास)
- Appendix II of Griffith's translation, a listing of the names of various Vedic meters, with notes.