मुण्डकोपनिषद्
लेखक | वेदव्या |
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रचनाकार | अन्य पौराणिक ऋषि |
भाषा | संस्कृत |
शृंखला | अथर्ववेदीय उपनिषद |
विषय | ज्ञान योग, द्वैत अद्वैत सिद्धान्त |
शैली | हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ |
प्रकाशन स्थान | भारत |
मुंडकोपनिषद् दो-दो खंडों के तीन मुंडकों में, अथर्ववेद के मंत्रभाग के अंतर्गत आता है। इसमें पदार्थ और ब्रह्म-विद्या का विवेचन है, आत्मा-परमात्मा की तुलना और समता का भी वर्णन है।
इसके मंत्र सत्यमेव जयते ना अनृतम का प्रथम भाग, यानि सत्ममेव जयते भारत के राष्ट्रचिह्न का भाग है। इसमें परमात्मा द्वारा अपने अन्दर से विश्व के निर्माण (मकड़ी के जाले का उदाहरण) और दो पक्षिय़ों द्वारा जगत के साथ व्यवहार को आत्मा-परमात्मा में भेद [1] के उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया गया है। यह अद्वैत वैदांतियों, जैसे शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद और द्वैत वादियों जैसे माध्वाचार्य दोनों की रूचि का ग्रंथ है। शंकराचार्य को यह अद्वैत वेदांत तथा संन्यास निष्ठा का प्रतिपादक है।
इस उपनिषत् में ऋषि अंगिरा के शिष्य शौनक और ऋषि के संवाद के रूप में दिखाया गया है। इसमें 64 मंत्र है - 21, 21 और 22 के तीन मुंडकों में।
परिचय
[संपादित करें]मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, अथर्वा, अंगी, सत्यवह और अंगिरा की ब्रह्मविद्या की आचार्य परंपरा थी। शौनक की इस जिज्ञासा के समाधान में कि "किस तत्व के जान लेने से सब कुछ अवगत हो जाता है अंगिरा श्रृषि ने उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश किया जिसमें उन्होंने विद्या के परा और अपरा भेद करके वेद वेदांग को अपरा तथा उस ज्ञान को पराविद्या नाम दिया जिससे अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है (1. 1. 4.5)।
विहित यज्ञ यागादि के फलस्वरूप स्वर्गादि दिव्य किंतु अनित्य लोक सधते हैं परंतु कर्मफल का भोग समाप्त होते ही मनुष्य अथवा हीनतर योनि में जीव जरामरण के चक्कर में पड़ता है (1. 1.7 - 10)। कर्मफल की नश्वरता देखते हुए संसार से विरक्त हो ब्रह्मनिष्ठ गुरु से दीक्षा लेकर संन्यासनिष्ठा द्वारा ब्रह्मोपलब्धि ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है (1. 2 - 11.12)।
ब्रह्म "भूतयोनि" है अर्थात् उसी से प्राणिमात्र उत्पन्न होते और उसी में लीन होते हैं। यह क्रिया किसी ब्रह्मबाह्य तत्व से नहीं होती, बल्कि जैसे ऊर्णनाभि (मकड़ी) अपने में से ही जाले को निकालती और निगलती है, जैसे पृथिवी में से औषधियाँ और शरीर से केश और लोम निकलते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म से विश्वसृष्टि होती है। अपने अनिर्वचनीय ज्ञानरूपी तप से वह किंचित् स्थूल हो जाता है जिससे अन्न, प्राण, मन, सत्य, लोक, कर्म, कर्मफल, हिरण्यगर्भ, नामरूप, इंद्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति, जल और पृथिवी इत्यादि उत्पन्न होते हैं (1. 1. 6 - 9, 2. 1. 3)। प्रदीप्त अग्नि से उसी के स्वरूप की अनगिनत चिनगारियों की तरह सृष्टि के अशेष भाव ब्रह्म ही से निकलते हैं। यथार्थत: संसार पुरुष (ब्रह्म) का व्यक्त रूप है (2. 1. 1, 2. 1. 10)।
ब्रह्म का सच्चा स्वरूप अव्यक्त और अचिंत्य है। आँख, कान इत्यादि ज्ञानेंद्रियों और हाथ पाँव इत्यादि कमेंद्रियों, तथा मन और प्राण इत्यादि से रहित वह अज, अनादि, नित्य, विभु, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, दिव्य और वर्णनातीत है (1. 1. 6, 2. 1.2)। तथापि सत् और असत्, दूर से दूर, समीप से समीप, ह्रदय में अवस्थित महान और सूक्ष्म, गतिशील और सप्राणोन्मेष इत्यादि उसके सगुण निर्गुण स्वरूप का वर्णन भी बहुधा हुआ है (2. 2.1, 3. 1.7)।
ब्रह्म को कोरे ज्ञान अथवा पांडित्य से, तीव्र इंद्रियों, मेधा, अथवा कर्म से नहीं पा सकते, कामनाओं का त्याग, निष्ठारूपी बल, सत्य, ब्रह्मचर्य, मन और इंद्रियों की एकाग्रता रूपी तप, अनासक्ति और सम्यक् ज्ञान इत्यादि उपायों से मनोविकारों के नष्ट हो जाने पर बुद्धि शुद्ध हो जाती है जिससे ध्यानावस्था में परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है (3.2 - 2.3.4, 3.1, 5.8)। इसके निमित्त उपनिषदों के महान अस्त्र प्रणवरूपी धनुष पर उपासना से प्रखर किए आत्मारूपी बाण से तन्मय होकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य की बेचने की साधना का निर्देश है (2. 2. 3.4)। इससे जीवात्मा और परमात्मा के अभेद का अनुभवात्मक ज्ञान हो जाता है; ह्रदय की गाँठ खुल जाती, सब संशय मिट जाते और पुण्य और पाप के बंधन से मुक्ति मिल जाती है (2.2.8) एवं मरण काल में आत्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं। इस "एकीभाव" का स्वरूप बहती हुई नदियों का समुद्र में मिलने पर नामरूप मिटकर एकरसता प्राप्त होने के समान है (3.2.7.8)।
द्वैतवादी "एक ही वृक्ष पर सटे बैठे दो पक्षी मित्रों में एक पीपल के मीठे-मीठे गोदे खाता और दूसरा ताकता मात्र है" (3. 1. 1)। मंत्र में कर्म-फल-भोक्ता आत्मा तथा ब्रह्म का भासमान भेद लेकर दोनों के स्वरूपत: भिन्न मानते हैं, परंतु अनुवर्ती तथा दूसरे मंत्रों एवं उपसंहारात्मक "ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति" (3. 1. 2. 3, 3.2.7-9) वाक्य से ब्रह्मात्मैक्य इस उपनिषद् का सिद्धांत निष्पन्न होता है।
रचनाकाल
[संपादित करें]उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—
- पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
- पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
- सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
- उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण
निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है[2]-
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सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ 3.1.1 में इस प्रकार है - 'द्वा सुपर्णा सयुजा समान वृक्षं परिषस्वजाते, तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्न्नयऩ्यन्नयो अभिचाकशिति। यानि एक पेड़ पर दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी बैठे हैं। एक फल को खा रहा है और दूसरा उसे खाते हुए देख रहा है। यहाँ पेड़ प्रकृति है जिसे एक पक्षी भोग रहा है - उसे आत्मा के समान माना गया है और जो पक्षी उसे खाते हुए देख रहा है उसे परमात्मा के रूप में बताया गया है, जो भोग तो नहीं करता है लेकिन वीक्षण करता है, देखता है।
- ↑ Ranade 1926, pp. 13–14
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]मूल ग्रन्थ
[संपादित करें]अनुवाद
[संपादित करें]- Translations of major Upanishads
- 11 principal Upanishads with translations
- Translations of principal Upanishads at sankaracharya.org
- Upanishads and other Vedanta texts
- डॉ मृदुल कीर्ति द्वारा उपनिषदों का हिन्दी काव्य रूपान्तरण
- Complete translation on-line into English of all 108 Upaniṣad-s [not only the 11 (or so) major ones to which the foregoing links are meagerly restricted]-- lacking, however, diacritical marks
- www.ancienttexts.org Also at ancienttexts.org
- Mundaka Upanishad - A simple translation
- Sri Aurobindo, The Upanishads [1]. Sri Aurobindo Ashram, Pondicherry. 1972.